- ब्रज – भक्ति परंपरा के प्रमुख विषय राग भोग सेवा से सम्बंधित यह लेख श्री कपिल देव उपाध्याय द्वारा लिखा गया है। श्री उपाध्याय ब्रज ,विशेषकर वृन्दावन के सांस्कृतिक ताने -बाने के मर्मज्ञ हैं।
श्री कपिल देव उपाध्याय
यत् सम्प्रद्रायाश्रयाणां नराणां श्री राधिका कृष्ण पदारविंदे।
प्रेमा गरीयान् सहसाभ्युदेवी निम्बार्कमेतं शरणं प्रपद्ये।।
ऐसी श्रुति है, निम्बार्क में श्री निम्बार्काचार्य जी ने भगवान् श्रीकृष्ण के पौत्र श्रीवज्रनाभ कौ प्रेरित करिके इनके द्वारा अपने पितामह श्रीकृष्ण की लीला स्मृति में ब्रज भूमि में श्रीकृष्ण मंदिरों में श्रीराधाकृष्ण की युगल छवि की प्रतिष्ठा करायी एवं लोक जीवन में या प्रकार श्रीराधाकृष्ण युगल रस उपासना का प्रवर्तन किया।
देव गृह में इष्ट की मूर्ति प्रतिष्ठा होकर विभिन्न महापुरुषों, रसिकाचार्यों द्वारा युगल छवि पूजित होने लगी। यह भक्ति आन्दोलन का चरमोत्कर्ष था। इसमें विभिन्न देश देशान्तर प्रांत, सम्प्रदाय आदि ने वृन्दावन को भक्ति का केन्द्र स्थापित कर देव पूजा, श्रीविग्रह के अर्चन के विभिन्न सिद्धान्त प्रतिपादित हुए। पौराणिक आधार पर नवधा भक्ति की व्याख्या हुई व प्रतीक के रूप में भक्तों की उपासना पौराणिक नायकों का चयन हुआ।
श्रवणं, कीर्तनं विराजो स्मरणं पाद सेवनम्।
अर्चनं वंदनं दास्यं साख्यात्म निवेदनम्।।
श्रवण के प्रतीक राजा परीक्षित जिन्होंने शुकदेव जी द्वारा भागवत श्रवण कर मोक्ष्य प्राप्त किया।
कीर्तन- शुकदेव जी जो कि जन्म से ही हरि कीर्तन में संलग्न रह कर अवधूत वेष को प्राप्त हो गये।
स्मरण- प्रह्लाद जी विपरीत परिस्थितियों में भी हरि स्मरण का त्याग नहीं किया। हरि स्मरण करके अक्षय राज पद व हरि पद प्राप्त किया।
पाद सेवन के प्रतीक विष्णु प्रिया लक्ष्मी जी है, जो विष्णु पाद सेवन के कारण भगवान् के अंतरंग है। अर्चन के प्रतीक राजा पृथु हुए, जिन्होंने भगवान् के अर्चन हेतु सहस्रों हाथ प्राप्त किये। अन्त में परम पद को प्राप्त हुए।
वन्दनं के प्रतीक अक्रूर जी है।
दास्य- दास भाव के द्वारा हमेशा भगवान् के अन्तरंग सेवा में उपस्थित हनुमान जी महाराज है जोकि अतुल्यनीय भक्ति के प्रतीक है।
साख्य- भाव के प्रतीक ब्रज ग्वाल व अर्जुन है। इस भाव की मान्य व प्रतिष्ठा के लिए ग्वालों के घोड़ा बने, झूठन खाया, अर्जुन के सारथी बन रथ हाँका।
आत्म निवेदन- इस सब के प्रतीक सर्वस्व न्यौछावर करने वाले राजा बलि प्रहलाद जी के पौत्र है। जिसके द्वारा भगवान विष्णु पहरेदार बने को विवश हुए।
इसी भावना को श्रीभट्टजी ने युगल शतक में गाया।
सेव्य हमारे है सदा, वृन्दा विपिन विलास।
नन्द नंदन वृषभानुजा, चरण अनन्य उपास।।
नन्द के सुत व वृषभानुजा (राधा) के चरण ही हमारे लिए सब कुछ है व वृन्दावन की कुँजों में बिहार करने वाले (राधा माधव) ही हमारे सेव्य है, इनके पृथक मैं किसी को नहीं जानता। मेरे लिए राधा माधव कुंज में रमण में रत ही सर्वस्व है।
तदुपरांत आचार्यों ने उपासना पद्धति व भक्ति के चरण वद्ध उपाय निरुपित किये। भक्त को किस प्रकार भक्ति में उपासना मंे प्रविष्ट होना चाहिए।
प्रथम सुने भागवत भक्त मुख भगवत वाणी।
द्वितीय अराधे भक्ति व्यास नच भाँति बखानी।।
तृतीय करे गुरु समुझ दक्ष सर्वज्ञ रसीलौ।
चौथे होय विरक्त बसे वनराज जसीलौ।।
पंचम मूले देह सुधि, छठें भावना रास की।
सातै पावे रीति रस, श्रीस्वामी हरिदास की।।
आचार्यों ने राधा माधव के विहार में प्रविष्टी के लिए उपरोक्त सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि प्रथम किसी योग्य त्यागी, निर्लोभी, स्पष्ट वक्ता के द्वारा श्रीकृष्ण की लीलाओं के विहार का मर्म समझना चाहिए फिर राधा माधव की भक्ति में प्रविष्ट की चेष्टा कर नवधा भक्ति के द्वारा युगल बिहारी की उपासना करनी चाहिए जो कि हरिराम व्यास जी ने जिसका वर्णन किया है। तृतीय चरण में राधा माधव की लीलाओं के रस के मर्मज्ञ योग्य गुरू से दीक्षित होकर विरक्त की अवस्था (काम, क्रोध, लोभ, मोह) का परित्याग करके सत, रज, तम पर विजय प्राप्त कर वृन्दावन की कुंजों, यमुना तट, सरोवर, विहार लीला स्थल, एकान्त का आश्रय लेना चाहिए।
जब भक्त इस अवस्था को प्राप्त करे लेंमे, तभी इस भौतिक देह की सुधि स्वतः समाप्त हो जायेगी। इसके उपरान्त राधा माधव के रास या रमण में प्रविष्ट के योग्य इस प्रकार होगा, जैसे तपाया हुया स्वर्ण। यहाँ एक बिन्दु चिन्तनीय है। राधा माधव की अन्तरंग लीला, रमण लीला, विहार के रस को केवल स्वर्ण पात्र (अधिकारी व्यक्ति) ही धारण कर सकता है, जैसे शेरनी का दूध। (इसे साधारण पात्र में नहीं रखा जा सकता, यह पात्र में छेद कर निकल जायेगा) फिर रसिकों ने वृन्दावन की कुंजों में रमण व निवास के लिए सिद्धान्त निर्देशित किये।
सब सौ हितं निष्काम मत कर वृन्दावन विश्राम।
राधावल्लभ लाल कौ हृदय ध्यान मुखनाम।।
भक्त को सभी प्राणी मात्र का लाभ, हित (उपकार) करना चाहिए। किसी प्राणी, वृक्ष, जलचर, पक्षी का अनजाने में भी अपकार नहीं होना चाहिए। इस भावना को दृष्टिगत रखकर हृदय से करुणा, प्रेम, मस्तिष्क, मन क्रम वचन से राधा माधव की लीला की प्रति एकाग्रता रखकर मुख से हमेशा राधा माधव का स्मरण करते रहना चाहिए।
इस अवस्था के प्रति तन्मय होकर ही ब्रजवास का अधिकारी होगा, अन्यथा नहीं। ब्रजवास के अधिकारी व्यक्ति क्या करें-
प्रथम दरस गोविन्द रूप के प्राण प्यारे।
दूजे मोहन मदन सनातन सुचि उर धारे।।
तीजे गोपीनाथ, मधू हँसी कंठ लगाये।
चौथे राधारमण, भट्ट गोपाल लाड़ लड़ाये।।
पाँचे हित हरिवंश के सुवल्लभ वल्लभ राधा।
छठवें जुगल किशोर, व्यास सुख दियो अगाधा।।
सातयै श्री हरिदास के, कुँ बिहारी है वहाँ।
भगवत रसिक अन्यन्य मिलि, वास करहुँ निधिवन जहाँ।।
ठा. गोविन्द देव, मदन मोहन जी, गोपीनाथ जी, राधारमण, राधावल्लभ, जुगल किशोर, बाँकेबिहारी जी (कुँज बिहारी) के दर्शन यमुना स्नान के उपरान्त कर वृन्दावन के वन, कुंज लता पताओं में निवास करे। यह ठाकुरजी के श्रीविग्रह क्रमशः भक्ति पाद रूप गोस्वामी, श्रीपाद सनातन गोस्वामी, मधु गोस्वामी, श्री गोपाल भट्ट जी, श्रीहित हरिवंश जी व श्री हरिराम व्यास जी के ठाकुर जुगल किशोर कुँज बिहारी स्वामी हरिदास जी के स्वयं प्रकट विग्रह हैं।
उपरोक्त विग्रहों की नवधा भक्ति के अनुसार भक्त स्वरूचि के साथ उपासना करे। सामान्यतः भक्तों ने मन्दिरों के श्रीविग्रह की उपासना में वन्दनं व अर्चन ज्यादा स्वरूचि के स्वीकार किया। अर्चन में ज्यादा से ज्यादा समय पूजा में व्यतीत होने लगा, फिर भक्तों में आत्म निवेदन की भावना उदय हुई जिससे श्रीविग्रह साक्षात् भगवान् के स्वरूप में मान्यता हुई व मनुष्य जीव की तरह भगवान की रूचि की भावना का उदय हुआ। भक्त श्रीविग्रहों को विभिन्न सम्बन्धों से देखने लगे जैसे सखा, दास, स्वामी, पुत्र (वात्सल्य) की भावना मनुष्यों में घर करने लगी। यह चिन्तन साकार उपासना की वृत्ति को दृढ़ करने लगा। अब श्री विग्रह मात्र विग्रह न होकर साक्षात् मान्य होने पर विभिन्न प्रकार की राग भोग सेवा का ऋतु अनुसार अविष्कार हुआ। राग में छः ऋतुओं के अनुसार गायकी के लिए रसिकों द्वारा पद लेखन हुआ। सुबह-शाम श्रीविग्रहों के समक्ष विभिन्न राग में ताल व लय में गायन समाज विभिन्न प्राचीन वाद्ययन्त्रों के साथ सम्पन्न होने लगा। ऋतु अनुसार विभिन्न उत्सवों को भी देवालयों में भक्त व सेवकों के द्वारा अति उत्साह के साथ मनाये जाने लगे। बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर मुख्य ऋतुऐं हमारी परम्परा में है।
अभी ग्रीष्म ऋतु है, अतः हम ग्रीष्म ऋतु के मनोरथ या श्रीविग्रहों की ग्रीष्म सेवा का वर्णन करेंगे। ऋतु अनुसार वस्त्र आभूषणों में परिवर्तन हो जाता है। यह समय काल वैशाख वही प्रथमा से प्रारम्भ होकर ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा तक है। जब तापमान बढ़ता है, वस्त्र में श्रीविग्रह कू कपास निर्मित मल-मल के वस्त्र, काछनी कच्छा पटका धारण करते है। आभूषण, बाजूबंद, कौधनी, हार, कुण्डल, बेला, मोती सुगन्धित फूलों से निर्मित कर भक्त धारण कराते हैं। यहाँ तक ठाकुर का मुकुट व श्रीजी को कुण्डल किरीट भी सुगन्धित फूलों से निर्मित धारण कराये जाते है। कमल पुष्प गुलाब भी ब्रज में बहुतायत से प्राप्त है, अतः बेला, मोतीया के पुष्पों के मध्य माला में उपयोग होता है। जून मास में कदम्ब भी ब्रज में कृष्ण को प्रिय है, आभूष्ण में प्रयुक्त किया जाता है। मन्दिरों का समय भी ग्रीष्म काल में मंगल शृंगार, बाल भोग, राज भोग का ऋतु अनुसार परिवर्तित हो एक घंटा के लगभग में शीघ्र या पहले होता है। जैसे राज भोग आरती दोपहर बारह बजे होकर श्रीविग्रह को विश्राम हेतु देवालय के कपाट बन्द हो जाते है। विभिन्न देवालय के सम्प्रदाय अनुसार समय श्रीविग्रह के दर्शन के समय अलग-अलग है। विष्णु स्वामी अन्तर्गत वल्लभ सम्प्रदाय में बाल स्वरूप में सेवा के कारण मंगला के दर्शन लगभग 30 तीस मिनट शृंगार के पन्द्र मिनिट बाल भोग के पन्द्रह मिनट व राज भोग के आरती के साथ आधा घंटा (लगभग 30 से 45 मिनट) ही होते है। अन्य सम्प्रदायों में मंगला 4.30 बजे शृंगार सात बजे, बाल भोग आरती 9.30 बजे, राजभोग आरती 12 बजे कर दर्शन समाप्त के लिए 12 बजे मध्यान्ह बन्द हो जाते है। वल्लभ कुल में बाल भोग को ग्वाल कहते है। वृन्दावनस्थ बाँकेबिहारी मंदिर में मंगला आरती नहीं होती (केवल वर्षा ऋतु में जन्माष्टमी पर वर्ष में एक दिन मंगला आरती मनोरथ का आगमन होता है) राधावल्लभ सम्प्रदाय के मंगल 5.30 प्रातः, शृंगार लगभग 8 बजे राज भोग मध्यान्ह 12 बजे आरती का समय नियत है।
उत्थापन आरती अपरान्ह सायंकाल 4.30 बजे, बाँकेबिहारी में 5.30 बजे, राधावल्लभ मंदिर में सायंकाल 6 बजे है। गोधूली बेला में सभी मन्दिरों में सायंकालीन आरती होती है। परन्तु वृन्दावनस्थ श्रीबाँकेबिहारी मंदिर में गोधूली बेला की आरती नहीं होती है, रात्री 9.30 बजे शयन आरती का आयोजन होता है। सभी सम्प्रदायों में भावानुसार रात्रि शयन आरती का समय पृथक-पृथक है।
अत्यन्त गर्मी के समय श्रीबाँकेबिहारी जी महाराज फूलों से निर्मित जामा, मुकुट, कुण्डल, चन्द्रिका लकुटी धारण सुगन्धित पुष्पों से निर्मित धारण करते ह। प्राचीन समय से श्रीबँाकेबिहारी जी मंदिर चैत्र शुक्ल एकादशी से फूल बंगला का आयोजन प्रारम्भ हो जाता है, सभी देवालयों में श्रीविग्रह हेतु विभिन्न अवसरों पर फूल बंगला का कलात्मक निर्माण बेला की लड़ियों को आठ की फन्टीयों पर चौक लगा कर विभिन्न आकृतियों में ठाठ का निर्माण करते है। इन ठाठों से फूलों की तिवारी बैठक, सिंहासन, एक मंजिल, दो मंजिल, तीन मंजिल का निर्माण, तिवारी बैठक, सिंहासन, छत, झरोखा का निर्माण करते है। इसमें बेला व गुलाब, रजनीगंधा की लड़ियांे का प्रयोग होता है। सिंहासन को केला के तनो के गूदे के पर्त का इच्छानुसार कटिंग कर रंग बिरंगे चमकीले व साधारण कागज का इस्तेमाल का विभिन्न कृष्ण लीला के चित्र बनाये जाते हैं। यह एक कला है जो कि विभिनन ब्रज के मन्दिरों से निकल कर विश्व में विवाह मण्डल व सामाजिक कार्यक्रमांे को सुशोभित विदेशों में भी कर रही है। अब साधन बढ़ने के साथ विदेशी फूलों का भी बंगला में उपयोग अत्यधिक बढ़ गया है।
बंगला केवल फूलों के ही निर्माण नहीं होते बल्कि विभिन्न प्रकार की हरी सब्जियों का बंगला, फूलों का बंगला, आम का बंगला, ड्राईफ्रूट का बंगला भी विभिन्न मंदिरों में श्रीविग्रहों को तपिश से आराम देने व सुन्दरता के लिए निर्मित होते है। यह फूल बंगला साधारणतः मंदिरों में सायंकाल ही निर्मित किये जाते है। परन्तु ठा. बाँकेबिहारी मंदिर, राजभोग, शयनभोग के सेवाधिकारी पृथक होने के कारण विगत दो तीन वर्षों से उच्च न्यायालय से आदेश प्राप्त कर सुबह के समय भी फूल बंगला का मनोरथ होने लगा है। फूल बंगला का अर्थ सुगन्धित फूलों द्वारा निर्मित कुंज जो कि राधामाधव के विहार हेतु निर्मित की जाती है। प्राचीन समय में ठा. बाँकेबिहारी जी में केवल प्रमुख अवसरों पर ही फूल बंगला निर्मित होता था परन्तु अब फूल बंगला मनोरथ भक्तों की लम्बी लाइन होने के कारण प्रतिदिन दोनों समय निर्माण होता है। परन्तु सभी मंदिरों में गंगा दशहरा, निर्जला एकादशी, रथयात्रा, जलयात्रा के दिन फूल बंगला का आयोजन निश्चित मंदिर प्रबंध कमेटी करनी है।
भोग भी ऋतु अनुसार बाल भोग में सामान्य भोग के साथ फालसेव, खस, गुलाब के पेय श्रीविग्रहों को अर्पण करते है। राजभोग में भी शीतल पदार्थ सम्मिलित हो जाते है, जैसे खरबूजे, कच्चे आम का पना, पके आम का अमरस।
उत्थापन के समय हस्तनिर्मित पीस कर बनाई कालीमिर्च, बादाम, पोस्त, खरबूजे, सौंप के बीज को पीस कर दूध के साथ बनाई परम्परिक ठंडाई अर्पण की जाती है। ऋतु फल आम, फालसेव, खिरनी, बेल शर्बत, खरबूजा भोग में अर्पण होता है। इसी प्रकार शयन भोग में भी शीतल पदार्थ सम्मिलित होते है। परन्तु पूड़ी, सब्जी, हलवा, निश्चित शीतल गर्म दूध के अघोटा, दूध भात के साथ भोग लगता है। श्रीविग्रहों को शीतलता प्रदान करने के लिए प्राचीन समय में दोपहर में खस की शर्बत लगायी जाती थी। जिसे रात्री दोपहर में जल से भिगो दिया जाता। जिसके द्वारा प्रवाहित होने वाली वायु श्रीविग्रहों को शीतलता, सुगन्ध प्रदान करती थी, परन्तु अब उसका स्थान विद्युत उपकरणों ए.सी. ने ले लिया है।
राग सेवा: ऋतु अनुसार गायन होता है। जैसे ग्रीष्म काल में अक्षय तृतीया को ब्रज में सभी मंदिरों में सर्वांग दर्शन होते है व शीतला प्रदान करने के लिए अंग लेपन चंदन का किया जाता है। ठा. बाँकेबिहारी में वर्ष में एक दिन चरण दर्शन होते है।
आज बने नन्द नन्दन री नव चन्दन लेप कियो।
तामे चित्र बने केसर के राजत हैं सखी सुभग हिये।।
अक्षय तृतीया सुभ दिन नी कौ चन्दन पहिरत नवल किशोर।
उज्जवल बसन नवीन सौं राजत फेंटा के नीके छुटे छोर।
केसर तिलक माल फूलन की पहिरैं ढ़ाढे रंग भरे।
आस पास जुवती जन शोभित गावन मंगल गीत खरे।।
नृसिंह चतुदर्शी:
अपनो जन प्रहलाद उबारयौ।
खम्भ नीचतें प्रगटे नरहरि हिरण्य कश्यप उर नखन विदारयौ।।
बरसत कुसुम सब्द धुनि जै-जै सुर देखत सा कौतुक हारयौ।
कमला हरि जू के निकट न आवत ऐसौ रूप हरि कबहुँ न धरयौ।।
फूँल बंगला: राग – बिहारगौ
फूल महल फलवारि में, फूल सिगार किये।
श्री हरिप्रिया बैठे दोऊ, फूले फूल हिये।।
देखौ सखी फूलनि की फुलवारी।
फूले-फूले महल में बैठे फूलि-फूलि पिय प्यारी।।टेक।।
फूलन कौ सिर मुकुट विराजौ फूलन माँग सवारी।
फूलन की कंलगी जगमगी छवि फूलन की चन्द्रिका री।।
फूलन के आभूषन पहिरै फूलन कंचुक सारी।
फूलन की अंगिया उपरैना फूल हजार लहँगारी।।
फूलन सिखर फूलन कौ मंडप फूलन के छाजा री।
फूलन के छवि देत झरोखा अरु फूलन की जारी।।
फूल मयी सब ठौर ठौर छवि फूल रही फूल वारी।
फूल चौक में फूल-फूल की छूटत फूल फुहारी।।
फूल सिंहासन आस पास टाढ़ी फूलि सबै सहचारी।
फूल-फूल की सौज लिये कर फूलन फूल सिंगारी।।
फूलन चँवर ढुरावत फूली कै फूलन बिजनारी।
व्यारत व्यार सुगन्धन की लचरै मन हरत महा री।।
कहा कहौ कछु फूल-फूल श्री सौहे अति सोभारी।
श्रीहरि प्रिया फूल-फूलन पर फूल करौ बलिहारी।।
बैठे लाल फूलन की चौखण्डी।
चंपक वकुल गुलाब निवारौ रायबेल सिर बंडी।।
जाही, जुंछी, केतकी, कजौरिन, अरु कनेर सुरंगी।
चत्रभुज प्रभु की बानिकं दिन-दिन वन वनखंडी।।
फूलन के भवन में, गिरधर नव नागरी।
फूलन के शृंगार करि, अति ही विराजै।।
फूलन की पाग सिर, श्याम जू के राजत है।
फूलन की माल तिन-हिय में विराजै।।
फूलन की सारी अरु, कंचुकी हू फूलन की।
फूलन कौ लंहगा, निरखि कमा लाजै।।
छीत स्वामी फूलन में, विलसि है प्यारी संग।
मुसकि मुसकि के दोऊ, अंग काम दाजै।।4।।
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