रसखान, जिनका असली नाम सैयद इब्राहिम था, हिंदी साहित्य के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। जन्म के संदर्भ में कई मतभेद हैं, परंतु अधिकांश विद्वानों के अनुसार उनका जन्म सन् 1548 ई. में पिहानी, उत्तरप्रदेश के हरदोई जिले में हुआ था। कुछ लोग उनका जन्म स्थान दिल्ली के निकट मानते हैं। अकबर के शासनकाल (1556-1605) के समकालीन रसखान का जीवनकाल 1628 ई. तक माना जाता है।
भक्ति और साहित्यिक योगदान
रसखान एक मुस्लिम कवि होते हुए भी भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनकी भक्ति अद्वितीय थी। वे विट्ठलनाथ के शिष्य थे और वल्लभ संप्रदाय के सदस्य थे। उनके काव्य में भक्ति और शृंगार रस की प्रधानता देखने को मिलती है। रसखान के सगुण कृष्ण वे सारी लीलाएं करते हैं, जो कृष्ण लीला में प्रचलित रही हैं, जैसे बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि।
रसखान की रचनाओं में भक्ति और प्रेम का अद्भुत समन्वय है। उनके काव्य की सीमित परिधि में उन्होंने असीमित लीलाओं को बखूबी बाँधा है। उन्होंने भागवत का अनुवाद फारसी और हिंदी में भी किया है, जो उनके बहुमुखी प्रतिभा का प्रमाण है। रसखान की रचनाएँ आज भी हिंदी साहित्य के अमूल्य धरोहर मानी जाती हैं।
जीवन की घटनाएँ और समाधि
रसखान का जीवन विभिन्न घटनाओं से परिपूर्ण रहा है। उनके अनुसार, दिल्ली में गदर के कारण उन्होंने दिल्ली छोड़कर ब्रज (मथुरा) की ओर प्रस्थान किया। यह गदर सन् 1613 ई. में हुआ था, जिससे यह प्रतीत होता है कि उस समय वे वयस्क हो चुके थे। मथुरा जिले के महाबन में उनकी समाधि स्थित है।
भक्ति का अद्वितीय उदाहरण
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिए कहा था, “इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए,” उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है। बोधा और आलम भी इसी परम्परा में आते हैं। रसखान के अनुसार, गदर के कारण दिल्ली श्मशान बन चुकी थी, तब वे ब्रज चले गए। यह उनकी गहरी भक्ति और श्रद्धा का प्रतीक है।
रसखान, अर्थात् रस की खान, अपने नाम के अनुरूप ही काव्य के क्षेत्र में रस की खान थे। उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से भक्ति और प्रेम को नए आयाम दिए। उनकी रचनाएँ हिंदी साहित्य के लिए अमूल्य धरोहर हैं और उनके जीवन की घटनाएँ भक्ति की अनूठी मिसाल पेश करती हैं। रसखान के योगदान को सदैव स्मरण किया जाएगा और उनकी रचनाएँ हमेशा ही प्रेरणा देती रहेंगी।
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