भारतीय भक्ति साहित्य का सबसे मधुर, भावपूर्ण और लोकप्रिय केंद्र यदि कोई है, तो वह ब्रज भूमि है। यह वही भूमि है जहाँ श्रीकृष्ण ने जन्म लिया, बाल लीलाएँ कीं, गोपियों संग रास रचाया, और प्रेम को अध्यात्म का सर्वोच्च मार्ग बनाया।
भक्ति काल (14वीं–17वीं शताब्दी) के दौरान ब्रज में ऐसे अनेक कवियों ने जन्म लिया, जिन्होंने श्रीकृष्ण की लीलाओं को गद्य और पद्य दोनों रूपों में गाया, लिखा और जनमानस के हृदय में अमिट बना दिया।
भक्ति काल भारतीय साहित्य का स्वर्णिम युग माना जाता है, जब धर्म और काव्य का अद्भुत समन्वय हुआ। ब्रज क्षेत्र इस काल में केवल एक भौगोलिक स्थान न होकर एक आध्यात्मिक चेतना का केंद्र बन गया। यहाँ के संत-कवियों ने श्रीकृष्ण को केवल एक ऐतिहासिक पात्र नहीं, बल्कि अपने जीवन का परम ध्येय, सखा, प्रियतम, गुरु और सर्वस्व मान लिया।
ब्रजभाषा, जो मूलतः लोक की वाणी थी, इन संत-कवियों की कृपा से भक्ति की भाषा बन गई। उन्होंने श्रीकृष्ण की बाललीलाओं, यशोदा-माखन, रास-रंग, विरह-वेदना, प्रेम की पराकाष्ठा और ब्रजरस को ऐसे सहज एवं सरस रूप में व्यक्त किया कि वह शाश्वत साहित्य बन गया।
सूरदास (15वीं–16वीं शताब्दी)
सूरदास का नाम श्रीकृष्ण भक्ति काव्य के शीर्ष पर लिया जाता है। सूरसागर, साहित्य लहरी और सूर सारावली जैसे ग्रंथों में उन्होंने श्रीकृष्ण के बाल रूप, यशोदा के वात्सल्य, राधा-कृष्ण की प्रेम लीला और गोपियों के मनोभावों का अनूठा चित्रण किया है। उनके पदों में वात्सल्य और माधुर्य रस की गहनता मिलती है—
“मैया मोरी, मैं नहिं माखन खायो।”
“बरसाने के लाल की चितचोर छवि न्यारी।”
सूर के कृष्ण लोक के नहीं, हृदय के बालक हैं, जिन्हें रोता, खेलता, मुस्काता देखा जा सकता है।
रसखान (16वीं शताब्दी)
एक मुसलमान कवि होते हुए भी रसखान ने जिस श्रद्धा, प्रेम और माधुर्य से श्रीकृष्ण का चित्रण किया, वह अद्वितीय है। ब्रजभूमि, यमुना, गोपियाँ और कन्हैया उनके काव्य के केंद्र बिंदु हैं—
“मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौं ब्रजगोकुल गाँव के ग्वारन।”
“धूरि भरे अँग, सघन कुंज गली, नंद की गायनि संग…”
नंददास, विट्ठलनाथ, गोविंद स्वामी
सांप्रदायिक रूप से वल्लभ संप्रदाय से जुड़े इन कवियों ने श्रीकृष्ण को शृंगार-माधुर्य की सीमा तक पहुँचाया। पुष्टिमार्ग में ‘सेवा’ और ‘लालन’ की अवधारणा के अंतर्गत लीलाओं का चित्रण हुआ। नंददास का पद है-
“मो सम कौन कुटिल खल कामी।
कोटिन बार बिसारहूँ, नंदलाल की ठामी।”
हित हरिवंश (16वीं शताब्दी)
राधावल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक हित हरिवंश जी ने श्रीकृष्ण को राधा के माध्यम से देखा। उनकी रचनाओं में राधा तत्व की महिमा है, जहाँ कृष्ण राधा के आधीन हैं।“श्री हित हरिवंश की वाणी में, ब्रज रस बरसत झरना है।”
चतुर्भुजदास, चित्सुखानंद, कुंभनदास
ये सभी अष्टछाप के कवि थे, जिन्होंने नाथद्वारा के श्रीनाथजी को केंद्र में रखकर श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान किया। कुंभनदास जैसे संत ने कहा—“साधु, ऐसा प्रेम बिनु… भक्ति न होय!”
गद्य साहित्य में श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन हुआ है। भक्ति काल में पद्य रचना प्रधान रही, फिर भी गद्य में भी श्रीकृष्ण विषयक रचनाएँ हुईं, विशेषकर लीलाओं की व्याख्या, टीका, दर्शन और कथा के रूप में वर्णन हुआ है।
श्रीमद्भागवत की टीका रूप यह रचना गद्य में है, जिसमें उन्होेंने भागवत के दशम स्कंध (कृष्ण लीला) की भावपूर्ण व्याख्या की है।
महाप्रभु चैतन्य की लीलाएं और चैतन्य चरितामृत का वर्णन आता है।
चैतन्य महाप्रभु स्वयं कृष्ण के अवतार माने गए और राधा भाव से कृष्ण को भजने की प्रेरणा दी। उनके अनुयायियों द्वारा रचित गद्य ग्रंथों में कृष्ण-नाम, लीला और भक्ति का अद्भुत दर्शन मिलता है।
ब्रज के गोस्वामियों और महंतों ने श्रीकृष्ण की लीलाओं को गद्य में कथाओं, संवादों और व्याख्यानों के रूप में संकलित किया। ये गद्य साहित्य न केवल भक्ति का साधन बने, बल्कि लोक में कथा-संस्कृति का विकास भी किया।
ब्रजभाषा इस काल में भावों की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति बनी। उसकी कोमलता, लयात्मकता, माधुर्य और संगीतिकता ने कृष्ण-लीलाओं को जीवंत कर दिया। कविता में अलंकार, ध्वनि, रसानुभूति के साथ साथ सहजता और सरलता भी बनी रही। पद्य का प्रत्येक छंद, गोविंद के गुणगान का मधुर झंकार बन गया।
इन कवियों के साहित्य का प्रभाव केवल काव्य या भक्ति तक सीमित नहीं रहा, अपितु रामलीला और रासलीला की परंपरा को सशक्त किया।
कीर्तन और संकीर्तन का विकास भी इसी दौरान हुआ। लोकगीतों, झूलनों, फाग, होली आदि में श्रीकृष्ण की लीलाएं रच-बस गईं।
भक्ति काल में ब्रज के संत-कवियों ने श्रीकृष्ण को भाव, रस, शब्द और स्वर के माध्यम से जिस जीवंतता से प्रस्तुत किया, वह भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि है। ये रचनाएँ केवल साहित्य नहीं, बल्कि अनुभूति हैं, जो भक्त के हृदय को माधुर्य और मुक्ति दोनों का मार्ग दिखाती हैं।
श्रीकृष्ण पर रचा गया ब्रज का पद्य और गद्य, आज भी रासमंडलियों, कथावाचकों, भक्तों और कलाकारों के जीवन का आधार है। वास्तव में, ब्रज में भक्ति, कविता और श्रीकृष्ण—ये तीनों एक दूसरे में समाहित हो चुके हैं, जैसे बांसुरी की तान में राधा का नाम गूंजता है।–
चंद्र प्रताप सिंह सिकरवार)
समन्वयक:
उप्र ब्रज तीर्थ विकास परिषद
More Stories
कुम्भ
मीरा बाई: कृष्ण भक्त कवयित्री की अद्भुत जीवनी
रसखान: भक्ति और शृंगार के अद्वितीय कवि