श्रीमद् भगवद् गीता की महिमा असीम है, भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से निर्झरित शब्दों को महर्षि वेदव्यास द्वारा अठारह अध्यायों में सजाया गया है, इसके अध्ययन मात्र से माया कृत प्रदूषण की कारा स्वतः निर्मलता को धारण कर लेती है। इस उपनिषद रूपी गंगाजल का सेवन मनव मात्र को आत्म दर्शन के योग्य बना देता है। गीता का सिद्धान्त है कि कर्म करने वाले केवल कर्म करने में ही अपना अधिकार माने, फल के लिए उतावले न हों। निष्काम कर्म योग के अभ्यास से जन्म बन्धन से मुक्त होकर तुम अनामय पद को प्राप्त कर लोगे।
सगुण ब्रह्म की प्राप्ति केवल अनन्य भक्ति से ही होती है, किन्तु विश्व रूप दर्शन भगवान की कृपा से ही सम्भव है। व्यवहार और परमार्थ के लिए जितनी विधाएँ अपेक्षित हैं वे सभी गीता में उपलब्ध हैं। गीता में स्वयं ही अपने लिये श्रीकृष्ण ने वेदान्तकृत और वेदवेद्य कहा है। अर्जुन के समक्ष साकार रूप में खड़े वेदान्त वेद्य तत्व श्रीकृष्ण ने उसे कहा, अर्जुन! तुम मुझे इन आंखों से नहीं देख सकते, मैं तुम्हें दिव्य नेत्र देता हूँ, उससे मेरे ऐश्वर्य योग को देखो। यह ऐश्वर्य योग ही अघट घटना पाटव है।
आत्म संयम से योग सिद्ध होता है, यहाँ श्रीकृष्ण का कथन है कि इसके लिए स्वाधीन चित्त की आत्मा में स्थिति और भोगों के प्रति निरपेक्षता आवश्यक है। इन सब तात्विक संदर्भों के कारण ही गीता को दुग्ध का सारभूत नवनीत कहा गया है। इसीलिए महापुरुषों ने गीता का तात्पर्य भक्ति प्रपत्ति में ही अन्तर्हित माना है। गीता का यह श्लोक देखें-
मन्मना भव मदभक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामे वैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।
(गीता 18/65)
अर्जुन तुम मुझ में ही चित्त लगाओ, मेरा भजन करो, मेरा यजन करो, मुझे ही नमस्कार करो, चूँकि तुम मेरे प्रिय हो, इसलिये मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि ऐसा करने पर तुम मुझे ही प्राप्त हो जाओगे।
More Stories
मीरा बाई: कृष्ण भक्त कवयित्री की अद्भुत जीवनी
रसखान: भक्ति और शृंगार के अद्वितीय कवि
अष्टछाप के कवि