अष्टछाप, महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी एवं उनके पुत्र श्री विट्ठलनाथ जी द्वारा संस्थापित आठ भक्तिकालीन कवियों का एक समूह था, जिन्होंने अपने विभिन्न पद एवं कीर्तनों के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं का गुणगान किया। अष्टछाप की स्थापना 1565 ई० में हुई थी। इस समूह के कवियों ने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण विषयक भक्तिरसपूर्ण कविताएँ रचकर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।
अष्टछाप कवि और उनकी रचनाएँ
अष्टछाप कवियों के अंतर्गत पुष्टिमार्गीय आचार्य वल्लभ के काव्य कीर्तनकार चार प्रमुख शिष्य तथा उनके पुत्र विट्ठलनाथ के चार शिष्य थे। आठों ब्रजभूमि के निवासी थे और श्रीनाथजी के समक्ष गान रचकर गाया करते थे। उनके गीतों के संग्रह को “अष्टछाप” कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है आठ मुद्राएँ। उन्होंने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण विषयक भक्तिरसपूर्ण कविताएँ रचीं। उनके बाद सभी कृष्ण भक्त कवि ब्रजभाषा में ही कविता रचने लगे। अष्टछाप के कवि जो हुए हैं, वे इस प्रकार से हैं:
कुंभनदास (1448 ई. – 1582 ई.)
कुंभनदास ने अपनी भक्ति और सादगी से भरी कविताओं में श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन किया। उनके एक प्रसिद्ध पद में वे कहते हैं:
केते दिन जु गए बिनु देखैं।
तरुन किसोर रसिक नँदनंदन, कछुक उठति मुख रेखैं।।
सूरदास (1478 ई. – 1583 ई.)
सूरदास, अष्टछाप कवियों में प्रमुख थे। उन्होंने श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं और रासलीलाओं का अद्भुत वर्णन किया। उनके प्रसिद्ध पद में उनकी काव्य दृष्टि की गहराई स्पष्ट होती है:
अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परमानंददास (1493 ई. – 1583 ई.)
परमानंददास की रचनाएँ भक्ति रस से परिपूर्ण हैं। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं का वर्णन किया:
बृंदावन क्यों न भए हम मोर।
करत निवास गोबरधन ऊपर, निरखत नंद किशोर॥
कृष्णदास (1496 ई. – 1575 ई.)
कृष्णदास ने अपनी रचनाओं में श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन किया है। उनके पदों में भक्ति और प्रेम का अनूठा समन्वय देखने को मिलता है:
देख जिऊँ माई नयन रँगीलो।
लै चल सखी री तेरे पायन लागौं, गोबर्धन धर छैल छबीलो॥
गोविंदस्वामी (1505 ई. – 1585 ई.)
गोविंदस्वामी ने अपनी कविताओं में श्रीकृष्ण की लीलाओं का सुन्दर वर्णन किया है। उनके पदों में भक्तिरस की गहराई स्पष्ट झलकती है:
प्रात समय उठि जसुमति जननी गिरिधर सूत को उबटिन्हवावति।
करि सिंगार बसन भूषन सजि फूलन रचि रचि पाग बनावति॥
छीतस्वामी (1515 ई. – 1585 ई.)
छीतस्वामी ने अपनी रचनाओं में भक्ति के विभिन्न रंगों को प्रस्तुत किया है। उनके पदों में भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा स्पष्ट झलकती है:
धन्य श्री यमुने निधि देनहारी।
करत गुणगान अज्ञान अध दूरि करि, जाय मिलवत पिय प्राणप्यारी॥
चतुर्भुजदास (1530 ई.)
चतुर्भुजदास ने अपने पदों में भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपनी गहरी भक्ति का प्रदर्शन किया है:
तब ते और न कछु सुहाय।
सुन्दर श्याम जबहिं ते देखे खरिक दुहावत गाय॥
नंददास (1533 ई. – 1586 ई.)
नंददास ने अपनी रचनाओं में श्रीकृष्ण की महिमा और उनके लीलाओं का वर्णन किया है। वे महाकवि तुलसीदास जी के चचेरे भाई थे:
नंद भवन को भूषण माई।
यशुदा को लाल, वीर हलधर को, राधारमण सदा सुखदाई॥
इन कवियों में सूरदास प्रमुख थे। अपनी निश्चल भक्ति के कारण ये लोग भगवान श्रीकृष्ण के सखा भी माने जाते थे। परम भागवत होने के कारण यह लोग भगवदीय भी कहे जाते थे। ये सभी विभिन्न वर्णों से थे, जैसे परमानंददास कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, कृष्णदास शूद्रवर्ण के थे, कुंभनदास राजपूत थे, लेकिन खेती का काम करते थे। सूरदासजी किसी के मत से सारस्वत ब्राह्मण थे और किसी के मत से ब्रह्मभट्ट थे। गोविंददास सनाढ्य ब्राह्मण थे और छीत स्वामी माथुर चौबे थे। नंददास जी सोरों सूकरक्षेत्र के सनाढ्य ब्राह्मण थे, जो महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी के चचेरे भाई थे। अष्टछाप के भक्तों में बहुत ही उदारता पाई जाती है। “चौरासी वैष्णवन की वार्ता” तथा “दो सौ वैष्ण्वन की वार्ता” में इनका जीवनवृत्त विस्तार से पाया जाता है।
अष्टछाप के कवियों ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है और उनकी रचनाएँ आज भी हमें भक्ति और प्रेम की गहराइयों में ले जाती हैं। इन कवियों की रचनाओं में न केवल धार्मिक भावनाएँ हैं, बल्कि मानवता, प्रेम और समर्पण की अद्भुत अभिव्यक्ति भी है। अष्टछाप के कवि भारतीय साहित्य के धरोहर हैं और उनकी रचनाएँ हमें सदैव प्रेरणा देती रहेंगी।
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